ये पथरीले संकरे रास्तों पर चलने का अहसास अच्छा है।
वो ‘जुगनू’ जो साथ चल रहा है बन के रोशनी, अच्छा है।।
एक ‘दरिया’ मुकम्मल होने के लिए बिछड़ता है पहाड़ों से।
वो बादल बन कर चूम रहा है ‘माथा’ पर्वतों का, अच्छा है।।
जिस वक़्त तपते हुए रेगिस्तान में नहीं मिलता कोई साया।
वो दीया अंधेरों में बे-वक़्त कर रहा है ‘उजाला’, अच्छा है।।
जंगलों में इस वक़्त पसरा हुआ है आलम घनी बेचैनी का।
वो पुरसुकून है अपने ‘मन’ की गहरी वादियों में, अच्छा है।।
बिना वक़्त की बारिशें अक्सर कर देती हैं तबियत नासाज़।
वो ‘एहतियातन’ छाता लेकर बाहर निकलता है, अच्छा है।।
लकड़हारे कर रहे हैं दावा हरे जंगलों के ”मसीहा” होने का।
वो सूखे पेड़ों में जिस मासूमियत से पानी दे रहा है,अच्छा है।।
बेहद मुश्किल है जंगलों के ‘रस्मों-रिवाज़’ को समझ पाना।
वो जंगली ‘फूल’ मानो मुझे देख के खिल रहा है, अच्छा है।।
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✍️ हेमंत कुमार