कितने ‘अरमानों’ पर पानी फिरा है, कितने सपने टूटे हैं।
चाहने से ‘इश्क’ वालों के जात-पात के बंधन कब टूटे हैं।।
बुने हैं सपने जब भी किसी मह जबीन ने, सच में झूठे हैं।
टूट जाते हैं लोग खूब ऐंठ में, मगर मोहब्बत में कब टूटे हैं।।
जो ना बदले ‘वक़्त’ के साथ,लोग वो हमेशा पीछे छूटे हैं।
रास्ते जो चुन लिए अल्हड़ जवानी ने, वो रास्ते कब टूटे हैं।।
इधर वो फैसले पर अटल है, उधर इश्क के देवता रूठे हैं।
जीवन की ‘चौसर’ है ये, भ्रम यहां ‘कौरवों’ के कब टूटे हैं।।
सीने में ‘दरिया’ समेटे बैठा था वो, जिसके ‘आंसू’ फूटे हैं।
कोई कितनी भी ‘हिम्मत’ जोड़े, कंकड़ से पर्वत कब टूटे हैं।।
हालत ठीक नही है ‘माना’ पर ‘रब’ के मिलाए कब छूटे हैं।
लाख चाह ले कोई, ‘रब’ चाहे तो, अंबर के तारे कब टूटे हैं।।
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✍️ हेमंत कुमार