अहा! फिर से मन का मौसम आ गया है.....
खिली-खिली धूप भी मन को भाने लगी है।
उदासी जो छाई थी महीनों से जाने लगी है।।
ठंडी हवा चेहरे की ‘मुस्कान’ बढ़ाने लगी है।
वही पुरानी नीली स्वेटर मुझे सुहाने लगी है।।
अहा! फिर से मन का मौसम आ गया है.....
याद है तुम्हें वो पिछले सालों की सर्दियां अपनी।
याद है तुम्हें वो ढेर सारी ‘शायराना’ बातें अपनी।।
याद है तुम्हें वो “अलाव” सी तपती सांसें अपनी।
याद है ना तुम्हें वो अधूरी सी ‘मुलाकातें’ अपनी।।
अहा! फिर से मन का मौसम आ गया है.....
ये लो फिर से दिल्ली में इक बार “जश्न ए रेख़्ता” आ गया है।
ये लो फिर से तुम पर ‘मर-मिटने’ का “मौसम” आ गया है।।
ये लो फिर से हमें तुम पर जान लुटाने का सलीका आ गया है।
ये लो फिर से इश्क की अदालत में इक मुकदमा आ गया है।।
अहा! फिर से मन का मौसम आ गया है.....
अबके मैं कर लूंगा ओस की बूंदों को अपनी मुट्ठी में बंद।
अबके मैं कर लूंगा कोहरे की चादर को अपनी सांसों में बंद।।
अबके मैं कर लूंगा सूर्य के ताप को अपनी आंखों में बंद।
अबके मैं कर लूंगा अपनी धडकनों को अपने ही सीने में बंद।।
अहा! फिर से मन का मौसम आ गया है.....
चलो फिर से एक बार अपने मन की कर लेता हूं।
चलो फिर से एक बार इन सर्दियों को जी लेता हूं।।
चलो फिर से एक बार तुम्हें रोज़ याद कर लेता हूं।
चलो फिर से एक बार मन का मौसम जी लेता हूं।।
🫠🫠
✍️ हेमंत कुमार