हर “सफ़र” में एहतियातन जरा सा संभल कर चला जाए।
बेशक हो लाख दुश्वारियां सामने, “मचल” कर चला जाए।।
बरसों–बरस से उसकी मेहमान नवाजी के ‘किस्से’ सुने हैं।
आज उस “ख्वाबों” के शहर में जरा ठहर कर चला जाए।।
ऐंठ कर बैठे हैं कुछ लोग अपनी दौलत, रुतबे के ‘गुरुर’ में।
उनके होश ठिकाने लगाने को जरा मुस्कुराकर चला जाए।।
हर ‘सफर’ में एक मांझी, एक पतवार की दरकार होती है।
अपने चाहने वालों को यकीनन साथ में ले कर चला जाए।।
एक वक़्त के बाद सब रिश्ते–नाते बोझ से लगने लगते हैं।
बेहतर तो ये है उम्मीदों का ‘वजन’ कम ले कर चला जाए।।
सफ़र में उसके साथ चलते-चलते उसे महसूस किया जाए।
जब भी मिले,उसका हाथ अपने हाथ में ले कर चला जाए।।
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✍️ हेमंत कुमार
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