बादलों के पार हो रही थी ‘साजिश’ उसके खिलाफ।
हवाओं की अब हो रही थी ‘गवाही’ उसके खिलाफ।।
कल ही की बात थी ‘कलंदर’ था वो अपने जहां का।
आज हो रही थी खुलकर ‘बगावत’ उसके खिलाफ।।
यकीनन किसी और की ‘रोशनी’ से ‘रोशन’ था चांद।
दिन उगते ही हो गई सारी ‘रोशनाई’ उसके खिलाफ।।
जाने क्यों बेफिक्र था ‘जंगल’ अपनी ‘हदों’ को लेकर।
लकड़ी ‘कुल्हाड़ी’ से मिलते ही हो गई उसके खिलाफ।।
पैमाना क्या है इंसाफ के झूलते तराजू का क्या मालूम।
सिक्कों की खनक भी हो गई अब तो उसके खिलाफ।।
खुदा की बंदगी बे-ग़ैरत को भी दे सकती है एक मौका।
मगर किसी ‘मासूम’ की बद्दुआ ना हो उसके खिलाफ।।
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✍️ हेमंत कुमार