इक अरसे से...
मैं ‘तलाश’ में हूं...
एक सुकून भरे दिन की...
जिसमें...
किसी झोंपड़ी में बैठ कर...
बुन सकूं आधे-अधूरे ख्वाबों को...
जिसमे...
सुलगा सकूं...
फुर्सत से पुरानी यादों का हारा....
जिसमें...
संजो सकूं...
बचपन के सुनहरे पलों को...
जिसमे...
मिल सकूं...
अपने खुद के वजूद से...
जिसमें...
खर्च कर सकूं...
खुद पर कुछ कीमती पल...
जिसमें...
दफ़न कर सकूं...
गुजरे वक्त की तन्हाइयां...
जिसमें...
महसूस कर सकूं...
तेरी तैरती परछाइयां...
जिसमें...
खोल सकूं...
द्वार गहरे अंतर्मन के...
जिसमें...
आह्वान कर सकूं...
सभी अदृश्य शक्तियों का...
जिसमें...
नंगी आखों से देख सकूं...
अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य को...
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✍️ हेमंत कुमार
*हारा- गोबर के उपले जलाकर कुछ पकाने का स्थान, जिसमें धीमी-धीमी आंच सुलगती रहती है।