प्रेम में मैंने
कई बार नाकाम
कोशिश की, तुम्हें
‘बांधने’ की एक
रेशमी डोर से.....
.....पर ऐसा
हो नहीं पाया...!!
......क्योंकि......
.....कौन रोक
पाता है भला...??
बहती नदी को....
मचलते समुंद्र को....
उड़ते पंछियों को....
उमड़ते ख्वाबों को....
चलती हवा को....
उड़ती अफ़वाह को....
कटती पतंग को....
.....मैं भी नहीं
रोक पाया तुम्हें.....
.....पर लगता है.....
जो हुआ, सही हुआ.....
प्रेम में उन्मुक्त
होकर आज मैं....
पहले से ज्यादा
प्रेम करता हूं
तुम्हें....
बिना किसी
खो जाने के
भय के.....
बिना किसी
मिलने की
आस के.....
बिना किसी
नाराज़ होने के
डर के.....
बिना किसी
तेरे होने के
भ्रम के.....
प्रेम में
उन्मुक्त होना
वाकई कठिन है.....
पर उन्मुक्त होकर
‘सरल’ होना
तुमसे सीखा है मैंने.....
🍁🍁
✍️ हेमंत कुमार