जो सबब “इंतज़ार” का हो, क्या-क्या ना कर जाऊं मैं।
इक पल के लिए ही सही,बस यहीं “ठहर” सा जाऊं मैं।।
शरद पूर्णिमा का ‘चाँद’ है वो बाद मुद्दत के नजर आएगा।
खत्म होगा ‘इंतजार’, वो यूं दूधिया रोशनी बिखेर जाएगा।
ये “लाजमी” है कि दूर तलक वो मेरा साथ निभाएगा।
आखिर “उसको” मालूम है कि ये रास्ता कहां जायेगा।।
बस इस “कदर” नाराज़गी हो जाए कि, वो रूठ जाए।
हमें भी अपना “हुनर” आजमाने का मौका मिल जाए।।
‘‘रिश्तों’’ में कहीं इस कदर की कशीदगी ना बढ़ जाए।
कहीं “तू” रूठना भूल जाए और वो मनाना भूल जाए।।
हर “सफर” में ये जरूरी नहीं कि, हमसफर साथ ही हो।
पर ये मुमकिन है ऐसे किसी सफर में कोई “हादसा” हो।।
अब यूं ना हो बीत जाएं सारे हसीन लम्हें इस “तूफान” में।
और यहां हम उलझे बैठे रहें सिर्फ इक तेरे “इंतजार” में।।
🧖🧏
✍️ हेमंत कुमार
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