बारिशों का ये ‘मौसम’ फिर से ले आया है
नमी ‘बंजर’ से पड़े हुए सारे के सारे दिलों में.....
फिर एक बार फूटने लगी हैं हरी-हरी कोपलें
बेहद खामोश से खड़े इन झुलसे हुए दरखतों में.....
बारिशों के इस हसीन ‘मौसम’ में ‘मैं’ भी
फिर इक बार, ढूंढने लगा हूं “दिल का करार”......
यादों के झरोखों को ‘आईनों’ में ढूंढने लगा हूं,
अब मैं बारिश की बूंदों में सुकून ढूंढने में लगा हूं.....
रूठ कर जाने वालों को अब भुलाने लगा हूं,
अब मैं खुद को ही फिर से ‘जीवंत’ करने में लगा हूं.....
सुबह-शाम नन्हें पौधों से अब बतियाने लगा हूं,
अब मैं पुरानी ‘किताबों’ से हाथ मिलाने में लगा हूं.....
खेतों में चांद को देखकर अब मुस्कुराने लगा हूं,
अब मैं बारिशों में जंगलों के नक्शे बनाने में लगा हूं.....
खारे पानी की हर इक बूंद को बहाने में लगा हूं,
अब मैं बादलों की प्यास को दिल में समाने में लगा हूं......
अपने गुनाहों की अब फेहरिस्त बनाने लगा हूं,
अब मैं बारिशों में ‘गुलमोहर’ के पेड़ उगाने में लगा हूं......
हर इक नए दिन का अब लुफ्त उठाने लगा हूं,
अब मैं दोस्तों को ‘इश्क’ के किस्से सुनाने में लगा हूं......
❤️🥀
✍️ हेमंत कुमार
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