एक ख्याल अक्सर मेरे जहन में आता है
और कर देता मेरे हृदय को प्रफुल्लित
कि यूं ही किसी दिन मिलना हो हमारा तुम्हारा
ये स्त्री~पुरुष के तमाम भेदभाव भुला कर....
हम बैठेंगे किसी बेहद नितांत ‘एकांत’ में
दीन दुनिया के सब बुनियादी ख्यालों से परे
बस अपनी ही बुनी हुई किसी ‘दुनिया’ में
दुनिया के तमाम मसलों से बेखबर होकर....
तुम एकदम ‘खाली हाथ’ चले आना
बस ले आना अपने साथ में थोड़ा सा वक़्त
और थोड़ी सी मुस्कान चंचल ‘चेहरे’ पर
बस उगा लाना एक ‘उजला’ चांद माथे पर....
कि जिस्मानी दुनिया से परे भी हैं हम कुछ
ये ‘महसूस’ कर सकें धड़कते ‘दिलों’ में,
लम्बी, गहरी ‘ख़ामोशी’ के बीच छेड़ सकें
धीमे-धीमे सुर में संगीत की मधुर स्वर लहरियां....
कि तुम्हारा मेरे कांधे पर सर रख के बैठ जाना
जैसे तुमने कर दिया हो अपना सबकुछ समर्पित
और मेरा भरोसे से थाम लेना ‘हाथ’ तुम्हारा
जैसे ये जोड़, बेजोड़ है अब अनंत काल के लिए....
कि ये प्रेम की खुशबू महकती रहे इस चमन में
जब भी निराशाओं के बादल चारों ओर मंडराने लगें
कि प्रेम की बूंदें झट से बरसने लगे आसमानों से
ताकि कोई आशंकित ना हो प्रेम में बह जाने से पहले....
ये मिलना ‘यूं’ भी बेहद जरूरी है हमारा तुम्हारा
कि नहीं मिल सकते चाहकर भी धरती और आकाश
कि नहीं मिल सकते हैं वो तमाम अतीत के प्रेमी
जिनकी रगों में कभी बहता था रक्त रूप में अथाह प्रेम....
कि प्रेम को दे दिया गया है ‘विकृत’ रूप जमाने में
कि प्रेम हो चुका है अभिशापित, अलोकतांत्रिक, अछूत
घृणा का ‘बीज’ चुपके से रोप दिया गया है दिलों में
प्रेम को बाज़ार ने झोंक दिया है व्यापार में मुनाफे के लिए....
ये मिलना ‘यूं’ भी बेहद जरूरी है हमारा तुम्हारा
कि हमारे हिस्से का प्रेम परिपक्व होकर अमृत बन सके
कि घृणा के बीजों को भी ‘प्रेम’ से सींचा जा सके
ताकि ये जाना जा सके कि जीवन और मृत्यु के बीच एक मात्र सत्य ‘प्रेम’ है....
❣️
✍️ हेमंत कुमार
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