बड़ी बेदर्द है दुनिया,“हवाओं” के संग हो के कहां जाऊंगा।
तुझमें बसती है रूह मेरी, तुमसे अलग हो के कहां जाऊंगा।।
हर तरफ ‘बेहिसाब’ मसले हैं इस हंसती~खेलती दुनिया में।
अपने खुद के गढ़े हुए किरदार से जुदा हो के कहां जाऊंगा।।
आधा सा चांद टूट के बिखरा हुआ है धान के खाली खेतों में।
अब ये बता इस ‘गज़ब’ के मयकदे का हो के कहां जाऊंगा।।
गम है, खुशी है, कमी है, हंसी है, मुफलिसी है, तिजारत है।
चलो ठीक है, सब है, मगर इन सब का हो के कहां जाऊंगा।।
इक तेज दरिया बह रहा है पहाड़ के आड़े~तिरछे आंगन से।
मैं खारा पानी हूं, मैं तेरी काली आंखों से हो के कहां जाऊंगा।।
इक उम्र लगती है तमन्नाओं के बड़े~बड़े महल खड़े करने में।
मैं तेरे दिल की तिलस्मी दुनिया से जुदा हो के कहां जाऊंगा।।
💟💟
✍️ हेमंत कुमार
No comments:
Post a Comment