मांग कर देख ली मन्नतें मैंने
और फिर निराश होकर खोल
दिए सारे “धागे” मन्नतों वाले....
ना कभी वो मन्नतें पूरी हुई और
ना कभी ‘मन्नतों’ पर भरोसा हुआ....
मगर ‘तुम’ मुझे अनायास ही
मिले थे बिना कोई मन्नत मांगें.....
और फिर एक दिन अनायास ही
उपज आया था ‘प्रेम’ हमारे बीच.....
रिश्तों की ‘प्रगाढ़ता’ कभी भी
किसी नाम की मोहताज नहीं रही.....
फिर सहसा ही मैंने बांध दिया तुम्हें
मन्नतों से परे, एक धागा ‘प्रेम’ का.....
कहां मालूम था कि एक कच्चा धागा
दे सकता है संबंधों को इतनी गहराईयाँ.....
कितना सुखद होता है ना
यूं किसी का अपना-अपना सा हो जाना
और बिना माँगे “सब कुछ” सा मिल जाना.....
🧿🧿
✍️ हेमंत कुमार
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