काश! मैं पहन सकूं
मुलायम, उजली-उजली
नर्म धूप को और
बंदोबस्त कर सकूं....
आने वाली ‘कड़कड़ाती’
सर्दियों का।
काश! मैं जला सकूं
पुरानी, दिलकश, खुशनुमा
यादों को और
इंतजार कर सकूं....
फिर से नई कोपलें खिलाने वाले
मौसम का।
काश! मैं पुकार सकूं
खुद को तुम्हारा नाम लेकर
चुपके से और
अहसास कर सकूं.....
तुम्हारी अनकही, अनसुनी
पीड़ा का।
काश! मैं लिख सकूं
अपनी कलम से तुम्हारा हाल
हू-ब-हू और
स्थापित कर सकूं.....
सही मायनों में नया आयाम
इबादत का।
काश! मैं उतार सकूं
अपनी खुरदरी हो चुकी त्वचा
खुरच कर और
महसूस कर सकूं.....
आनंद गिले-शिकवों, नाउम्मीदी के
जाने का।
काश! मैं पहन सकूं
मुलायम, उजली-उजली
नर्म धूप को और
बंदोबस्त कर सकूं....
आने वाली ‘कड़कड़ाती’
सर्दियों का।
⛄⛄
✍️ हेमंत कुमार
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