इन बसंती फिजाओं में आजकल ये कैसी खुमारी सी है।
इस खाली पड़े दिल में आजकल ये कैसी बेकरारी सी है।।
सारी ‘उलझने’ सुलझी ~ सुलझी सी थी एक ‘जमाने’ से।
इन मद्धम सी बहती हवाओं में अब ये कैसी बेजारी सी है।।
‘सांझ’ ढले ये मन इन दिनों कहीं खोया सा रहने लगा है।
आधी कच्ची ~ पक्की सी उम्रों में ये कैसी ‘बीमारी’ सी है।।
एक साया बेतरतीब सा उलझा हुआ है इन सांसों में जैसे।
कोई बताए अब इन धड़कनों पर ये कैसी पहरेदारी सी है।।
उम्मीदों के मुताबिक़ कहां फैसले हो पाए हैं दिल वालों के।
सांसे चल रही हैं, धड़कनें ठहरी हैं, ये कैसी लाचारी सी है।।
इक जमाने से रिहाई की ‘उम्मीद’ लगाए बैठी हैं वो आखें।
लब खामोश हैं, नजरें झुकी है, अब ये कैसी इंकारी सी है।।
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✍️ हेमंत कुमार