कोहरा 🌁🌁
ये जो ‘कोहरा’ सा छा रहा है आसमान में ‘धुआं’ तो नहीं।
वो जो बे~वजह सा ही चाहता है तुमको ‘धोखा’ तो नहीं।।
ये सड़क बडी गुम-सुम सी है, आज कहीं इतवार तो नहीं।
वो जो कर रहा है मोलभाव, कहीं कोई खरीददार तो नहीं।।
मेहरबां, हमें मालूम है, इश्क इक रास्ता है मंजिल तो नहीं।
वो भी जानते हैं वो मर्ज़ी के मालिक हैं किरायेदार तो नहीं।।
उसको जमाने लगेंगे हमें समझने में, कोई शिकवा तो नहीं।
हर कोई पढ़ ले हमें बड़े शौक से, हम कोई इश्तहार तो नहीं।
उसकी बेबसी कोई क्या समझेगा, वो कोई दीवाना तो नहीं।
हवा खिलाफ चली है दीये के, सच है ये, अफसाना तो नहीं।।
सब कुछ ‘सच’ ही कहा था उसने, मगर वो ‘काफी’ तो नहीं।
साबित कर देगा वो ‘बेगुनाही’ भी, मगर ये ‘इंसाफ’ तो नहीं।।
बहुत ऊंचे हैं सत्ता के ‘सिंहासन’, इन्हें नीचे दिखता तो नहीं।
‘इंसाफ’ होता होगा फाइलों में, हकीकत में मिलता तो नहीं।।
🌪️🌪️
✍️ हेमंत कुमार
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