उदास ‘मन’ से सुनसान गली में
टहलते वक्त ‘नज़र’ गली के कोने
वाले ”घर” की एक खुली हुई
खिड़की पर अनायास ही चली गई.....
एक विचार मन में आया कि
क्यों खुली हुई होगी ये ‘खिड़की’.....
‘शायद’........
शायद कोई चोर घुसा हो
चुपके से इस घर में.....??
शायद कोई रहता ही ना हो
इस घर में बरसों से.....??
शायद तेज़ हवा के झोंके से
खिड़की खुद ही खुल गई हो.....??
या फिर.....
शायद किसी के आने की उम्मीद
में खुली हुई हो ये खिड़की.....
आजकल के इस बंद खिड़की,
दरवाजों और पर्दों के कठिन दौर में
खुली हुई ‘खिड़कियां’ हमेशा इक
उम्मीद जगाती रहती हैं ‘बेजार दिलों में’.....
🤍
✍️ हेमंत कुमार